रक़ीबों के दरमियां कोई हमसाज़ न मिला
हमसफ़र दुनिया में कोई दूरदराज़ न मिला
लगा बैठे दिल को तेरी चाहत का रोग जो
दिल को बहलाने का कोई अंदाज़ न मिला
हज़ार ज़ख्म खाकर भी जुबां खामोश रही
हाल-ए-दिल को कोई अल्फ़ाज़ न मिला
सिसकती रही ज़िन्दगी ठोकरों में उनकी
वजूद को जिनके कोई सर अफराज़ न मिला
मिटा सके दुनिया के ज़ुल्मों सितम को
ऐसा इस ज़माने में कोई जांबाज़ न मिला
शमशान में पड़ी है इंसानियत इस कदर
कि जिंदा करने का कोई इलाज़ न मिला
(चित्र गूगल सर्च से साभार )