सोमवार, 21 दिसंबर 2009
रक़ीब
रक़ीबों के दरमियां कोई हमसाज़ न मिला
हमसफ़र दुनिया में कोई दूरदराज़ न मिला
लगा बैठे दिल को तेरी चाहत का रोग जो
दिल को बहलाने का कोई अंदाज़ न मिला
हज़ार ज़ख्म खाकर भी जुबां खामोश रही
हाल-ए-दिल को कोई अल्फ़ाज़ न मिला
सिसकती रही ज़िन्दगी ठोकरों में उनकी
वजूद को जिनके कोई सर अफराज़ न मिला
मिटा सके दुनिया के ज़ुल्मों सितम को
ऐसा इस ज़माने में कोई जांबाज़ न मिला
शमशान में पड़ी है इंसानियत इस कदर
कि जिंदा करने का कोई इलाज़ न मिला
(चित्र गूगल सर्च से साभार )
रविवार, 30 अगस्त 2009
देखा तेरी आंखों में...
देखा तेरी आँखों में अक्स कुछ अपना सा
गाने लगा मन इक प्यार का नगमा सा
छू गई मेरे दिल का कोई तार कहीं
छाया था पलकों पे इकरार का सपना सा
अनजान थी मैं खुद के हाले दिल से
देखा मैंने उनमें इक हमसफ़र अपना सा
ले गई वो मुझको चुराकर मुझ ही से
कर गई महफिल में मुझको तनहा सा
उनकी चंचलता ने मदहोश कर दिया
छाने लगा हो जैसे इक प्यार का नशा सा
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
शुक्रवार, 21 अगस्त 2009
उम्मीद
शामें ग़म तन्हाई के साज बजते रहे
तेरे दर पर दिल के पैगाम भेजते रहे
घटाओं की बेवफाई का गिला क्या करें
आँखों के समंदर में नमी सहेजते रहे
वो गए ऐसे कि फिर न आए कभी
क़दमों की आहट से मकान गूंजते रहे
अश्कों से बुझी जली बस्ती दिल की
अरमानों की ख़ाक के गुबार लरजते रहे
बन न सका आशियाँ सपनो का
शहर मिटटी के घरौंदों से सजते रहे
ख़त्म होंगे वक़्त कभी खिजाओं के
'उम्मीद' लिए हर ख़ुशी तजते रहे
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
बुधवार, 5 अगस्त 2009
इक तारा गर्दिशों में कहीं खो गया
इक तारा गर्दिशों में कहीं खो गया
अपनी ही तन्हाई में तल्लीन सो गया
भटक रहा जुस्तजू की तलाश के लिए
घूम रहा कन्धों पे अपनी ही लाश लिए
इक शायर बदनाम कहीं हो गया
कश्ती क्या डूबती जो चली ही नहीं
रिश्ते क्या टूटते जो बने ही नहीं
अपनी ही कशमकश में ग़मगीन हो गया
इक तारा गर्दिशों में कहीं खो गया
अपनी ही तन्हाई में तल्लीन सो गया
शनिवार, 1 अगस्त 2009
इक रिश्ता आसमानी
चलो इक रिश्ता आसमानी बना लाएँ
जिसकी छाँव में ग़मों को हम भुलाएँ
आगोश में है जिसकी ठंडक चांदनी की
बिखेर रही दोस्ती वही कोमल फिजाएँ
गर्दिश-ए-दौरां से घायल जज्बातों के
ग़मों का इजहार तुझ ही से कर पाएँ
पलकों पे ढलकी अश्कों की बूँदें भी
तेरे दिल की सीपी में मोती बन जाएँ
जन्नत की शबनम बरसती है जहाँ
ऐ दोस्ती तुझे देते हैं फ़रिश्ते भी दुआएँ
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
रविवार, 26 जुलाई 2009
इक शाम तनहा ढलने को है
इक शाम तनहा ढलने को है
इक सुबह से सूरज मिलने को है
वक्त के पाटे पर तार-तार हुए
इक रूह नए कपड़े सिलने को है
समंदर के तूफानों से गुजर आई
इक कागज़ की कश्ती गलने को है
चिता की लपटों की गरमी पाकर
जज्बातों की बर्फ पिघलने को है
अश्कों की बारिश में भीगकर
दिल का मैल अब धुलने को है
जन्मों के सांचे में ढली मोम से
इक शमा नई शब् में जलने को है
(चित्र गूगल सर्च से साभार)
बुधवार, 22 जुलाई 2009
राहें
कहती हैं लम्बी सूनसान राहें
हर पल राहों पे आते-जाते
दिखाती हूँ भटकते मुसाफिरों को
मंजिल का रास्ता
करके खुद की गुमराह राहें
कहती हैं लम्बी सूनसान राहें
साथ देती हूँ राही का हर मोड़ पे
पर वो भूल जातें हैं
खुद की मंजिलों को पा के
कहती हैं लम्बी सूनसान राहें
शिकवा नहीं है किसी से
ना कोई गिला है
पर क्या कोई चलेगा
ता उम्र साथ उसके
कहती हैं लम्बी सूनसान राहें
(चित्र गूगल सर्च से साभार )
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
सावन के बहाने ...
सावन के बहाने अश्कों को हम बहा आए
आसमां से दर्द का इक रिश्ता निबहा आए
सुलगते अरमानों को धुआं बनाकर
घटाओं के परिंदों को हम उड़ा आए
अश्कों की बूंदों से नमी को जब्ज कर
बादलों के दिल की आब पाशी करा आए
जज्बा-ए-दिल की शमा को पिघलाकर
बरसते सावन में दर्द को हम घुला आए
सूखे पत्तों से झड़ गए वो लम्हे उल्फत के
उन लम्हों की यादों को किताबों में दबा आए
खूने दिल के कतरों से सियाही लेकर
दास्ताने दर्द की इक ग़ज़ल हम बना आए
(चित्र गूगल सर्च से साभार )
रविवार, 5 जुलाई 2009
शब्-ए-खामोश
रविवार, 28 जून 2009
सावन की वो घड़ियाँ....
लगी जब-जब सावन की फुहारों की लड़ियाँ
याद आने लगी हमारे मिलन की वो घड़ियाँ
सोचा नहीं था मिलेंगे हम इक दिन
देखा जब मैंने तुम्हारी आंखों में उस दिन
वो भीगा सा आँचल वो भीगी फिजाएं
वो सड़कों पे ढूंढ़ना दरख्तों के साए
वो चंचल शोख हवाओं का बहना
वो हाथों को पकड़े हुए राहों पे चलना
वो नजदीक आना अपनी ओट में छुपाना
वो दुनिया की नज़रों से मुझको बचाना
याद रहेगा हमेशा वो मिलना हमारा
दुआ है रब से आए ऐसा सावन दोबारा
चित्र गूगल सर्च साभार
दुआ है रब से आए ऐसा सावन दोबारा
चित्र गूगल सर्च साभार
गुरुवार, 18 जून 2009
दिल गमगीन क्यूँ है?...
जवां तमन्नाओं की रौ में
दिल परेशान क्यूँ है
वक़्त है उमंगों का फिर भी
काया में थकान क्यों है ?
जज्बातों को ना समझ सके जो
उन चाहतों के ख़ूनी फरमान क्यों है ?
भरी महफ़िल में हो के भी
अपनों में अकेला इंसान क्यों है ?
जिंदादिली की ना पूछो दोस्तों
इस कदर तबियत परेशान क्यों है ?
रग-रग में लहू बहता है फिर भी
खूने दिल बर्फ़ान क्यों है ?
इस चलते-फिरते पुतलों के शहर में
पत्थर का बुत बना भगवान क्यों है ?
दुनिया के हसीन मेलों में भी
मौत का सामान क्यों है ?
आशाओं के इस छलकते समंदर में
निराशाओं का तूफ़ान क्यों है ?
साहिल के करीब होने पर भी
कश्तियों के डूबने का चलन क्यों है ?
साथियों की अठखेलियों के बीच
बचपन यूँ संजीदा क्यों है ?
उम्र है चहकने की फिर भी
कंधों पर बोझों का एहसान क्यों है ?
वो खूने जिगर हो के भी
दिल को दर्द के देता निशान क्यों है ?
अपनी ही सहेज़ी शाखें हैं फिर भी
गुल-ए-ख़ास चुनता बागवान क्यों है ?
जिंदगी जवान है फिर भी
मौत का हुस्न लगता हसीन क्यों है ?
जिंदगी खुदा की इनायत है फ़िर भी
वो मौत पे मेहरबान क्यों है ?
(चित्र गूगल सर्च से साभार)