मंगलवार, 31 मई 2016

शब्द चुभते हैं

चुभते हैं।
कुछ शब्द
चुभते हैं।


रिश्तों के बीच हो जाती हैं
जब छुटपुट झड़पें
अनजाने ही बन जाते हैं
कुछ शब्द
किरकिरे नुकीले बाण
जो चल जाते हैं
अपनों पर
और फिर
जीवन पर्यंत
चुभते रहते हैं।


कुछ शब्द 

चुभते रहते हैं।


शब्द रच देते हैं
एक अभेद चक्रव्यूह
जिसमें फँसता जाता है
जितना भी निकलना चाहता है
जो न जीता है न मरता
अकेला निहत्था
रिश्ता।

गुरुवार, 26 मई 2016

पानी मर गया....



पथराई आस

पथराई आँख

शायद पानी मर गया.....




                                             (माइक्रो सॉफ्ट पेण्ट पर बना स्व-रचना चित्र)

बुधवार, 25 मई 2016

रिश्ता...

जो करीब है
वो दूर बहुत है, 
जो दूर बहुत है
वही करीब है...