गुरुवार, 14 नवंबर 2019

समय का संताप

समय कहाँ पर आ कर ठहरा है?
अंधेरे का वर्चस्व गहरा है
क्या सरपंच, क्या पंचायत की कहें
पूरा गाँव ही जब अंधा, गूँगा, बहरा है

लगा ज्ञानमंदिर पर अर्थ का पहरा है
फिर भी गुमान है कि भविष्य सुनहरा है
कहते हैं ईश्वर के घर देर है
शायद इसीलिए बस्ती का उजाला कहीं और ठहरा है

सोमवार, 11 नवंबर 2019

ये देसी खिलौने

आज भी मिलते हैं ये झुनझुने और भोंपू
लेकिन आजकल के बच्चे इससे नहीं खेलते
फिर भी क्यों बनते हैं ऐसे खिलौने?
कौन खरीदता होगा इन्हें?
आपका बच्चा इनको लेने की जिद्द तो करता न होगा?
यदि जिद्द करे तो क्या खरीदेंगे आप?
क्या यूँ ही नहीं खरीद लेंगे अपने बच्चे के लिए?
या फिर किसी बच्चे को देने के लिए?


रविवार, 6 अक्टूबर 2019

किसका दुःख है जायज़?

कहते हैं एक-दूसरे से दो देशों के रहवासी यह, बताओ किसका दुःख है बड़ा, किसकी परेशानी है जायज़...?

वे कहते हैं, "हमें मेट्रो चाहिए, हम अपने बच्चों को डेढ़-डेढ़ घंटे लोकल में लटकाकर नहीं भेज सकते। हमारी परेशानियों को तुम दूर रहवासी क्या जानो?"

वे कहते हैं, हमें पेड़ चाहिए, हम अपने बच्चों को तार पर लटकाकर नहीं से सकते। हमारी परेशानियों को तुम दूर रहवासी क्या जानों?"

बताओ किसका दुःख है बड़ा, किसकी परेशानी है जायज़...?

वे कहते हैं, "चार लाख में से केवल दो हजार सात सौ पेड़ काटे जाएँगे, बाकी पेड़ तो हैं ना?"

वे कहते हैं, "चार लाख में से केवल दो हजार सात सौ पेड़ काटे जाएँगे, दो हजार सात सौ घरों के रहवासी तो बेघर हुए ना?"

बताओ किसका दुःख है बड़ा, किसकी परेशानी है जायज़...?

वे कहते हैं, "हाँ, यह सही है कि काटे गए हैं दो हजार सात सौ पेड़ लेकिन उसकी जगह बीस करोड़ पेड़ भी तो लगाए हैं, देखा नहीं सरकारी रिकार्ड क्या?"

वे कहते हैं, "हाँ, यह सही है कि काटे गए हैं दो हजार सात सौ पेड़ और उसकी जगह बीस करोड़ पेड़ लगाए हैं, हम कितने मारे गए, रखा है कोई सरकारी रिकार्ड क्या?"

बताओ किसका दुःख है बड़ा, किसकी परेशानी है जायज़...?

वे कहते हैं, "हम भी तो झेल रहे हैं CO2 और प्रदूषण किंतु विकास के लिए क्या हम नहीं कर सकते कुछ चीज़ों को न्योछावर?"

वे कहते हैं, "CO2 तुमसे और प्रदूषण भी तुम्हारा, विकास भी तुम्हारे लिए तो क्या तुम कर सकते हो अपने कुछ बच्चों को भी न्योछावर?"

बताओ किसका दुःख है बड़ा, किसकी परेशानी है जायज़...?
कहते हैं एक-दूसरे से दो देशों के रहवासी यह...

(चित्र- Rohit G Rusia)

बुधवार, 2 अक्टूबर 2019

दशहार

देश पहले हो
किन्तु देशवासी?

सड़क-सड़क स्वच्छ हो
किन्तु विचार?

नगर-नगर विकसित हो
किन्तु जंगल?

मंच-मंच भाषण हो
किन्तु सवाल?

घोष जय श्री राम का हो
किन्तु आचरण?

तलवार स्वतंत्र हो
किन्तु कलम?

'राज' की व्यवस्था हो
किन्तु अर्थव्यवस्था?

मिशन में स्वास्थ्य हो
किन्तु भूख?

बलात्कार की खुली छूट हो
किन्तु शौच?

देश में गांधी जयंती हो
किन्तु गांधी?

शनिवार, 14 सितंबर 2019

भय

स्थापित हो जाना एक ऐसी शय है
जिसे भय होता है हर पल गिराए जाने का

रोपित किए जाते समय भयभीत नहीं करता भूमि का कच्चापन
न ही उखड़ जाने का होता है भय
उस दौरान कितनी ही बार निराई जाती है
जड़ों के आस-पास की कच्ची भूमि
खर-पतवार उग जाने पर उलट-पलट दी जाती है मिट्टी भी
ताकि जड़ों तक पहुँच पाए धूप, हवा और नमी

स्थापित हो जाना एक ऐसी शय है
जिसे भय होता है हर पल खोदे जाने का

जमावट बनी रहे इसलिए आरंभ हो जाता है उपक्रम
जड़ों के आस-पास सीमेंट डालते जाने का
ताकि कठोर शिला सी हो जाए भूमि
इतनी कठोर कि समाप्त हो जाएँ सारे भय
निराए जाने के, खोदे जाने के या फिर मिट्टी के उलट-पलट दिए जाने के।

वृक्ष हो या कोई व्यक्ति
केवल स्थापित हो जाना भर ही संपूर्ण नहीं है
आवश्यकता होती है समय समय पर
जड़ों को पोषित होने की और नीरोगी होने की
वरना तो खोखलापन भी विस्थापित होने जैसा ही है....

गुरुवार, 22 अगस्त 2019

उसकी याद

अब भी याद आती है
वह।
जब रोते-रोते हिचकी बंध जाती
वह पास आकर पुचकारती
कभी बाँहों में भरकर
ढाढस बँधाती, सहलाती।

अब भी याद आती है
वह।
घर से दूर रहने पर
उसका ही साथ संबल देता
उसके स्पर्श की गर्माहट
कुछ पहचानी सी लगती
अनजानों में एक वही तो
अपनी सी लगती।

अब भी याद आती है
वह।
किसी विद्यालय में
कक्षा के बाहर, नल के पास,
शौचालय के दरवाज़े पर
ठीक उसी तरह
किसी बच्चे को
पुचकारती, ढाढस बँधाती, दुलारती
कपड़ों की मैल धुलवाती
एकदम वैसी ही
कोई ‘आया माँ’

क्या सचमुच तुमको
अब भी याद आती है
वह
तुम्हारी 'आया माँ'?

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

तुम देशद्रोही हो!

क्या?
तुम प्रश्न करते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम नमन नहीं सलाम करते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम सूरज की जगह चाँद देखते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम गाय को नहीं बच्चे को बचाते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम राम नहीं ईश्वर कहते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम जय भारत नहीं जय हिंद कहते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम गाय का नहीं भैंस का दूध पीते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम बधाई नहीं मुबारक़बाद देते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम वंदे मातरम् नहीं वसुधैव कुटुंबकम् कहते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम खून नहीं अमन कहते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम बलकरन के साथ हामिद को भी पोषते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम केसर नहीं धान उगाते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम तंत्र नहीं लोक चाहते हो?
तुम देशद्रोही हो!

तुम पुराण नहीं संविधान पढ़ते हो?
तुम देशद्रोही हो!
तुम देशद्रोही हो! तुम पाकिस्तान से हो!

शनिवार, 3 अगस्त 2019

मायने

लिखें तो क्या लिखें
हँसी लिखें, खुशी लिखें
या कि लिखें दर्द?
या वो लिखें जो आता है नज़र?
लेकिन, जो नज़र आता है उसे लिखा जाता है क्या?
लिखा जाता है तो पढ़ा जाता है क्या?
पढ़ा जाता है तो समझा जाता है क्या?
समझे जाने पर परिवर्तन आता है क्या?
फिर भी लिखा तो जाता ही है ना
क्योंकि
लिखा जाना आवश्यक है
लिखा जाना पर्याय है
पहचान का, नाम का
क्या इतना काफ़ी नहीं है
लिखे जाने के लिए?


हाँ,  लिखे जाने के अब यही मायने हैं!
बाकी सब बेमाने...

मंगलवार, 11 जून 2019

जनतंत्र

एक आदमी अपने अंतर की सुनता है
एक आदमी भीड़ की सुनता है
भीड़ की सुनने में, उसके जैसा करने में भय नहीं रहता
भय नहीं रहता क्योंकि कोई जिम्मेदारी नहीं लेनी पड़ती
जो भीड़ करे, करो
जो भीड़ कहे, कहो
जो भीड़ सुने, सुनो

लेकिन जो आदमी अपने अंतर की सुनता है, गुनता है
उसे अपने कहने, करने की जिम्मेदारी लेनी पड़ती है
वह सही साबित होता है तो कभी-कभी गलत भी
गलत उस मायने में कि वह भीड़ को नकार देता है
गलत उस मायने में कि 'सभी तो कर रहे हैं' के चलते नियम को नकार देता है

वह नहीं लेता लाभ
जो ले रहे होते हैं 'सभी'
वह हर कृत्य को तौलता है
वह असफल हो सकता है

लेकिन भीड़
भीड़ तो वह करती है, जो उससे करवाया जाता है, उकसाया जाता है
हाँ, वह सफल होती है
राह चलते किसी को पीटने में, तोड़ने में
या ढहाने में

तो हे! वीरों यह न कहो
यह न कहो कि भीड़ जो करती है, कहती है, चुनती है, वह सही होता है
क्योंकि पता है ना, कि भीड़ कौरव भी होती है?

हाँ, जनतंत्र है यह
जिसके मत का सम्मान होना चाहिए
न कि भीड़तंत्र के
न कि किसी ऐसे राजतंत्र के
जहाँ 'टका सेर' है सब कुछ
एक 'ज्ञानी' भी, एक 'अपराधी' भी

हे! भद्र जनों विचार करो
'जन' हो तुम जनतंत्र के
न कि किसी अंधेर नगरी के गोवर्धनदास...