सूरज ना पहले उठने पाए
अधखुली आँखों से बोला करते थे
टिक-टिक घड़ी की सुई के संग
टक-टक दौड़ा करते थे
ब्रेड गोलकर मुँह में ठूंस
लेकर चाय का एक बड़ा-सा घूंट
स्कूल को भागे जाते थे
दौड़ती-भागती सड़कों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?
थोड़े खीझे थोड़े मगन
बच्चों के संग रहते थे
रविवार की ख्वाहिश में हम
हफ़्ता पूरा करते थे
थोड़ी गप्पें साथियों के संग
मौका मिलते ही करते थे
शोर-शराबे में थोड़ा सा
सुकून का पल ढूंढा करते थे
हँसी-ठिठोली मुखड़ों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?
अब तो चहुँ ओर बस बंद-बंद
सूरज बंद, चंदा बंद
निखरना बंद, संवरना बंद
चहचहाना बंद, चिल्लाना बंद
दिन रात के इस बंद-बंद में
हो गया हो जैसे जीवन ही बंद
अब सोते-जागते हरदिन
इस आस में खोए रहते हैं
खुली-खुली सरहदों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?
अधखुली आँखों से बोला करते थे
टिक-टिक घड़ी की सुई के संग
टक-टक दौड़ा करते थे
ब्रेड गोलकर मुँह में ठूंस
लेकर चाय का एक बड़ा-सा घूंट
स्कूल को भागे जाते थे
दौड़ती-भागती सड़कों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?
थोड़े खीझे थोड़े मगन
बच्चों के संग रहते थे
रविवार की ख्वाहिश में हम
हफ़्ता पूरा करते थे
थोड़ी गप्पें साथियों के संग
मौका मिलते ही करते थे
शोर-शराबे में थोड़ा सा
सुकून का पल ढूंढा करते थे
हँसी-ठिठोली मुखड़ों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?
अब तो चहुँ ओर बस बंद-बंद
सूरज बंद, चंदा बंद
निखरना बंद, संवरना बंद
चहचहाना बंद, चिल्लाना बंद
दिन रात के इस बंद-बंद में
हो गया हो जैसे जीवन ही बंद
अब सोते-जागते हरदिन
इस आस में खोए रहते हैं
खुली-खुली सरहदों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?