रविवार, 4 दिसंबर 2016
बुधवार, 30 नवंबर 2016
तुम हो...
तुम सिर्फ़ अपने नाम तक सीमित नहीं हो
तुम सिर्फ़ अपने सम्मान तक सीमित नहीं हो
तुम सिर्फ़ अपने गान तक भी सीमित नहीं हो
तुम बिखरे पड़े हो
नदी, पहाड़, जंगल, खाड़ी, सागर, मैदान, रेगिस्तान में
तुम समाए हुए हो
हर दिल, हर धड़कन, हर नब्ज़ में
तुम समाए हुए हो हर आवाज़ में, हर इंकलाब में
तुम शब्द नहीं
जिसे सिर्फ़ तेरह पंक्तियों में समेटा जाय
तुम पल नहीं
जिसे सिर्फ़ बावन सेकेण्ड तक महसूसा जाय
तुम रंग नहीं
जिसे सिर्फ़ तीन रंगों में रंगा जाय
और तुम कोई आदेश भी नहीं
जिसे थोपा जाय
तुम असीमित हो, तुम अपरिभाषित हो
तुम अकथनीय हो, तुम बेरंग हो
तुम सिर्फ़ अपने सम्मान तक सीमित नहीं हो
तुम सिर्फ़ अपने गान तक भी सीमित नहीं हो
तुम बिखरे पड़े हो
नदी, पहाड़, जंगल, खाड़ी, सागर, मैदान, रेगिस्तान में
तुम समाए हुए हो
हर दिल, हर धड़कन, हर नब्ज़ में
तुम समाए हुए हो हर आवाज़ में, हर इंकलाब में
तुम शब्द नहीं
जिसे सिर्फ़ तेरह पंक्तियों में समेटा जाय
तुम पल नहीं
जिसे सिर्फ़ बावन सेकेण्ड तक महसूसा जाय
तुम रंग नहीं
जिसे सिर्फ़ तीन रंगों में रंगा जाय
और तुम कोई आदेश भी नहीं
जिसे थोपा जाय
तुम असीमित हो, तुम अपरिभाषित हो
तुम अकथनीय हो, तुम बेरंग हो
रविवार, 25 सितंबर 2016
कचरे की वस्तुएँ
इंसान बड़ा सयाना है
वह सब जानता है
कि उसे क्या चाहिए, क्या नहीं
नहीं रखता कभी
अपने पास, अपने आसपास
ग़ैरज़रूरी, व्यर्थ की वस्तुएँ
उन्हें फेंक देता है उठाकर
कचरे के डिब्बे में प्रतिदिन।
वह सब जानता है
कि उसे क्या चाहिए, क्या नहीं
नहीं रखता कभी
अपने पास, अपने आसपास
ग़ैरज़रूरी, व्यर्थ की वस्तुएँ
उन्हें फेंक देता है उठाकर
कचरे के डिब्बे में प्रतिदिन।
इंसान बड़ा सयाना है
नहीं फेंकता कुछ वस्तुएँ कभी
किसी भी कचरे के डिब्बे में
बेशक वे कितनी ही सड़-गल जाएँ
कितनी ही दुर्गन्धयुक्त हो जाएँ
उन्हें रखता जाता है सहेजकर
मन के डिब्बे में प्रतिदिन।
नहीं फेंकता कुछ वस्तुएँ कभी
किसी भी कचरे के डिब्बे में
बेशक वे कितनी ही सड़-गल जाएँ
कितनी ही दुर्गन्धयुक्त हो जाएँ
उन्हें रखता जाता है सहेजकर
मन के डिब्बे में प्रतिदिन।
शुक्रवार, 16 सितंबर 2016
जिंदगी हर सुबह की
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह
रोज़मर्रा के काम जल्दी-जल्दी निपटाना
तैयार हो काम के लिए निकलना
ठीक स्कूटर निकालते वक़्त
एक स्कूल की वैन का घर के सामने रुकना
ड्राइवर का मुझे निकलते हुए देखना
बच्चों का खिड़की से झाँकना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
घर से निकलते ही
कुछ दूरी पर छड़ी लिए एक बुज़ुर्ग का मिलना
चौराहे पर बस के इंतज़ार में खड़े
रोज़ाना उन्हीं चेहरों का दिखना
बगल से सर्राटा स्कूल बसों का निकलना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
वही शहीद पथ, वही फ़्लाईओवर
वही बाईं ओर उगते सूरज का दिखना
वही रेलिंग, वही पंछियों के जोड़ों का बैठना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
कोने वाली वही अंडे-दूध-ब्रेड की गुमटी
साईकिल पर जाते वही स्कूली बच्चे
झोपड़ी के बाहर सड़क के किनारे बैठे
कटोरे में चाय पीते फैन खाते बच्चे
पास ही कुत्तों के झुण्ड को
कूदते फाँदते देखना फिर अचानक
उनका स्कूटर के आगे आ जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
वही उबड़-खाबड़ खड़न्जों का रास्ता
पानी के गड्ढों को पार कर
स्कूल पहुंचना
गुडमॉर्निंग की आवाज़ों का स्वागत करना
भागते हुए अंदर जाना
निगाह दीवार घड़ी की सात दस की सुइयों से टकराना
रजिस्टर पर पड़े वही बिना ढक्कन के पेन का होना
साइन करना और एक साँस में सीढियाँ चढ़ जाना
और स्टाफरूम में जाकर बैठ जाना
एक घूँट पानी गले से उतारना
और साँसों में स्फूर्ति का भर जाना
फिर एक अंजाना सा रिश्ता बन जाना
और प्रतिदिन की आदत में शुमार हो जाना
ज़िन्दगी शुरू होती है हर सुबह
कुछ इस तरह।
सोचती हूँ इन्हें शब्दों के डिब्बों में बंद कर लूँ
ताकि जब कभी जीवन अकेला सा लगे
हाथों से छूटता सा लगे
तो खोल कर बाहर निकाल लूँ इन खुशनुमा पलों को
फिर से अपने अंदर स्फूर्ति भरने के लिए
जीवन के बचे हुए सफ़र को तय करने के लिए
ताकि ये रहें हमेशा मेरे साथ, मेरे बाद।
रविवार, 14 अगस्त 2016
रविवार, 5 जून 2016
मील के पत्थर
दूरियाँ बताते
तसल्ली दिलाते
रास्तों में गड़े मिल जाते हैं
अनगिनत मील के पत्थर।
दिशाएँ दिखाते, आस जगाते
रास्ते पर तने मिल जाते हैं
असंख्य बोर्ड।
लेकिन कुछ दूरियाँ
ऐसी होती हैं
जिनके लिए
न कोई मील के पत्थर मिलेंगे
न ही कोई दिशा दिखाने वाले बोर्ड।
उनको स्वयं तय करना पड़ता है
भटकना पड़ता है
खोजना पड़ता है
अपने विवेक, हौसले और विश्वास से।
मंगलवार, 31 मई 2016
शब्द चुभते हैं
चुभते हैं।
कुछ शब्द
चुभते हैं।
रिश्तों के बीच हो जाती हैं
जब छुटपुट झड़पें
अनजाने ही बन जाते हैं
कुछ शब्द
किरकिरे नुकीले बाण
जो चल जाते हैं
अपनों पर
और फिर
जीवन पर्यंत
चुभते रहते हैं।
कुछ शब्द
चुभते रहते हैं।
शब्द रच देते हैं
एक अभेद चक्रव्यूह
जिसमें फँसता जाता है
जितना भी निकलना चाहता है
जो न जीता है न मरता
अकेला निहत्था
रिश्ता।
गुरुवार, 26 मई 2016
बुधवार, 25 मई 2016
सदस्यता लें
संदेश (Atom)