कुछ लम्हे दिल के...
एक बार वक़्त से लम्हा गिरा कहीं, वहाँ दास्ताँ मिली लम्हा कहीं नहीं....गुलज़ार
रविवार, 4 नवंबर 2018
मैं, सोच रहा हूँ
मैं, नर्मदा पर खड़ा सोच रहा हूँ
अब लोग मेरे जिस्म को छू सकेंगे
लेकिन क्या इन फौलादी ऊँचाईयों पर
उनके एहसास भी मुझको छू सकेंगे?
मैं सोच रहा हूँ
रियासतों का एकीकरण किया था लेकिन
क्या सियासतों का एकीकरण कर सकूँगा?
प्रतीक बना हूँ एकता का
क्या नफरतों को खंडित कर सकूँगा?
मैं, नर्मदा पर खड़ा सोच रहा हूँ
लौहपुरुष था, पर लोहे का नहीं था मैं।
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