रविवार, 10 नवंबर 2013

चल पड़े हैं राह पर मंज़िल तो आ ही जायेगी

धूप है तो क्या घटा इक रोज़ छा ही जायेगी 
चल पड़े हैं राह पर मंज़िल तो आ ही जायेगी 

आज पतझर, फूल, पत्ती, डालियों को रौंद ले 
जब बहार आएगी गुलशन को सजा ही जायेगी 

इस हवस पर आप खुश हैं एक दिन होगा यही
आपकी औकात पलभर में घटा ही जायेगी

जाति, भाषा, धर्म, बोली की सियासत आग है
इस नगर से उस नगर तक बस तबाही जायेगी

आ के टकराता है अक्सर एक अदना सा ख़याल
क्या अदालत में कभी सच्ची गवाही जायेगी ?

इसकी उलझन छोड़िये, इसके लिए मत सोचिये
बुज़दिली कमज़ोर शय है मुँह की खा ही जायेगी

क्रांति हो, ललकार हो या ज़ोर की ओंकार हो
अर्चना होने से कैसे राजशाही जायेगी