रविवार, 28 जून 2009

सावन की वो घड़ियाँ....


लगी जब-जब सावन की फुहारों की लड़ियाँ
याद आने लगी हमारे मिलन की वो घड़ियाँ

सोचा नहीं था मिलेंगे हम इक दिन
देखा जब मैंने तुम्हारी आंखों में उस दिन

वो भीगा सा आँचल वो भीगी फिजाएं
वो सड़कों पे ढूंढ़ना दरख्तों के साए

वो चंचल शोख हवाओं का बहना
वो हाथों को पकड़े हुए राहों पे चलना

वो नजदीक आना अपनी ओट में छुपाना
वो दुनिया की नज़रों से मुझको बचाना

याद रहेगा हमेशा वो मिलना हमारा
दुआ है रब से आए ऐसा सावन
दोबारा


चित्र गूगल सर्च साभार

गुरुवार, 18 जून 2009

दिल गमगीन क्यूँ है?...



जवां तमन्नाओं की रौ में
दिल परेशान क्यूँ है
वक़्त है उमंगों का फिर भी
काया में थकान क्यों है ?

जज्बातों को ना समझ सके जो
उन चाहतों के ख़ूनी फरमान क्यों है ?
भरी महफ़िल में हो के भी
अपनों में अकेला इंसान क्यों है ?

जिंदादिली की ना पूछो दोस्तों
इस कदर तबियत परेशान क्यों है ?
रग-रग में लहू बहता है फिर भी
खूने दिल बर्फ़ान क्यों है ?

इस चलते-फिरते पुतलों के शहर में
पत्थर का बुत बना भगवान क्यों है ?
दुनिया के हसीन मेलों में भी
मौत का सामान क्यों है ?

आशाओं के इस छलकते समंदर में
निराशाओं का तूफ़ान क्यों है ?
साहिल के करीब होने पर भी
कश्तियों के डूबने का चलन क्यों है ?

साथियों की अठखेलियों के बीच
बचपन यूँ संजीदा क्यों है ?
उम्र है चहकने की फिर भी
कंधों पर बोझों का एहसान क्यों है ?

वो खूने जिगर हो के भी
दिल को दर्द के देता निशान क्यों है ?
अपनी ही सहेज़ी शाखें हैं फिर भी
गुल-ए-ख़ास चुनता बागवान क्यों है ?

जिंदगी जवान है फिर भी
मौत का हुस्न लगता हसीन क्यों है ?
जिंदगी खुदा की इनायत है फ़िर भी
वो मौत पे मेहरबान क्यों है ?





(चित्र गूगल सर्च से साभार)