बुधवार, 26 मई 2010

किसी भी शाख पे अब घोंसला नहीं है क्यों ?


जवां दिलों में कहीं हौसला नहीं है क्यों

मेरे वतन में कोई रहनुमा नहीं है क्यों


चमन को सींच रहा है लहू से जो माली

उसे चमन में कहीं आसरा नहीं है क्यों


हजारों बोझ तले क्यों सिसकता है बचपन

वो खुल के हंसता, कभी खेलता नहीं है क्यों


हमेशा उसने भरे हैं अमीर के खलिहान

मगर गरीब को दाना मिला नहीं है क्यों


कभी चमन की फिज़ा घोंसलों से थी गुलज़ार

किसी भी शाख पे अब घोंसला नहीं है क्यों


कई करोड़ हैं मन्दिर, जगह जगह पूजन

किसी के दिल में मगर आस्था नहीं है क्यों


(चित्र गूगल सर्च से साभार)

सोमवार, 17 मई 2010

बाघ १४११





रहने दो आशियाँ मेरा भी

मेरी भी ईश ने रचना की


वाहन बना भवानी माँ का

हूँ बाघ शान भारत माँ की


क्यूँ मारता मुझे है मानव

क्यूँ मैं बना सभी का दोषी


गिनती हजार की है केवल

संख्या बहुत बची कम मेरी


अस्तित्व गर मिटाया मेरा

हो जाएगी समाप्त सृष्टी


हैं ये हरे वसन धरती के

मत काट तन सघन वन शाखी



(चित्र गूगल सर्च से साभार)

रविवार, 9 मई 2010

तेरे आंचल में माँ



आप सभी को मातृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

यह ग़ज़ल मैं अपनी माँ के चरणों में समर्पित कर रही हूँ ,

वो अब इस दुनिया में नहीं हैं , फिर भी हमेशा मेरे साथ हैं "माँ"



सारे जहाँ भर का सुकूं मिलता तेरे आंचल में माँ

जब गम सताएं सैकड़ों, लिपटा तेरे आंचल में माँ


दौड़ी मेरी सुन आह माँ घायल हुआ मैं जब कभी

बाहों में तू ने ले लिया, सिमटा तेरे आंचल में माँ


उंगली पकड़ तेरी चला, बचपन हुआ मेरा जवां

लेकिन अभी तक ढूंढता, ममता तेरे आंचल में माँ


माँ, सिर्फ माँ, मैं ने कहा, जब बोलना आया मुझे

मैं ने झरोखा स्वर्ग का देखा तेरे आंचल में माँ


साथी नहीं कोई मेरा, जाऊं कहाँ, ढूंढूं किसे

इच्छा है तेरी गोद की, रहता तेरे आंचल में माँ


गम घेरते हैं अब मुझे, मुझ से सहा जाता नहीं

तू पास होती गर मेरे, सोता तेरे आंचल में माँ



(चित्र गूगल सर्च से साभार )