शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

वो सुबह

सूरज ना पहले उठने पाए
अधखुली आँखों से बोला करते थे
टिक-टिक घड़ी की सुई के संग
टक-टक दौड़ा करते थे
ब्रेड गोलकर मुँह में ठूंस
लेकर चाय का एक बड़ा-सा घूंट
स्कूल को भागे जाते थे

दौड़ती-भागती सड़कों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?

थोड़े खीझे थोड़े मगन
बच्चों के संग रहते थे
रविवार की ख्वाहिश में हम
हफ़्ता पूरा करते थे
थोड़ी गप्पें साथियों के संग
मौका मिलते ही करते थे
शोर-शराबे में थोड़ा सा
सुकून का पल ढूंढा करते थे

हँसी-ठिठोली मुखड़ों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?

अब तो चहुँ ओर बस बंद-बंद
सूरज बंद, चंदा बंद
निखरना बंद, संवरना बंद
चहचहाना बंद, चिल्लाना बंद
दिन रात के इस बंद-बंद में
हो गया हो जैसे जीवन ही बंद
अब सोते-जागते हरदिन
इस आस में खोए रहते हैं

खुली-खुली सरहदों वाली
वो सुबह फिर कब आयेगी?



2 टिप्‍पणियां:


  1. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    19/04/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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