शनिवार, 3 अगस्त 2019

मायने

लिखें तो क्या लिखें
हँसी लिखें, खुशी लिखें
या कि लिखें दर्द?
या वो लिखें जो आता है नज़र?
लेकिन, जो नज़र आता है उसे लिखा जाता है क्या?
लिखा जाता है तो पढ़ा जाता है क्या?
पढ़ा जाता है तो समझा जाता है क्या?
समझे जाने पर परिवर्तन आता है क्या?
फिर भी लिखा तो जाता ही है ना
क्योंकि
लिखा जाना आवश्यक है
लिखा जाना पर्याय है
पहचान का, नाम का
क्या इतना काफ़ी नहीं है
लिखे जाने के लिए?


हाँ,  लिखे जाने के अब यही मायने हैं!
बाकी सब बेमाने...

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